कोविद -19 और लॉकडाउन में ग़रीबों के संघर्ष : वंचित समुदाय के वर्तमान मुद्दे

सामाजिक हाशिये पे रहने वाले समुदायों की व्यथा का आलेख बाक़ी लोगों से हमेशा विभिन्न प्रतीत होता है।  किसी भी विपदा या विश्वव्यापी संकट के समय में भी प्रस्तुत हुई चुनौतियों का बोझ ग़ैर बराबरी तरीक़े से वितरित होता है, और हाशिये पर स्थित लोगों पर इस बोझ की सब से ज़्यादा अनुभूति होती है।  मुसहर और नुनिया समुदाय (उत्तर प्रदेश ग्रामीण) के क्षेत्र में लोगों से लॉकडाउन के समय में बात करके इसी बात का फिर से आभास हुआ। ये समुदाय जातिगत रूप से हाशियाबद्ध रहे हैं। कोविद-19 / कोरोना वायरस जैसी महामारी जाति नहीं देखती है। लेकिन मानव जीवन पर इसका परिचालन पहले से मौजूद सामाजिक संरचनाओं और जाति आधारित बहिष्करण जैसी असमानताओं पर निश्चित रूप से आधारित होगा। कुछ समुदायों द्वारा सामना की गई प्रणालीगत जाति आधारित सामाजिक उत्पीड़न अदृश्य बने हुए हैं, केवल उनकी ग़रीबी, सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयां दिखाई देती हैं। इसी सन्दर्भ में देखें तो सामान्य मुद्दों से ही जुड़ी बातें अत्यंत गंभीर रूप ले लेती हैं – फिर चाहे वो आजीविका चलाने की बात हो, सामान्य स्वास्थ्य  सेवा तक पहुँच या उसमें आने वाली बाधाओं पर काबू पाने की बात, या भोजन, पानी, शिक्षा से जुड़े रोज़मर्रा के संघर्ष को बनाये रखने की बात. जब लॉकडाउन जैसे प्रतिबंधात्मक मानदंडों का जीवन में पहले से मौजूद बाधाओं से आमना-सामना होता है एक अलग सी ही चुनौती खड़ी होती है।


वर्तमान में हम सभी कोविड -19 कोरोना वायरस से उत्पन्न विभिन्न चुनौतियों से जूझ रही है इस वैश्विक महामारी का असर पारिवारिक व सामाजिक जीवन में तेजी से बढ़ते हुए दिखाई दे रही है।  लॉक डाउन से गरीब, मजदुर, वंचित  वर्ग /समुदाय के लोग सब से अधिक प्रभावित हुए है। समान अधिकार वाले नागरिकों के रूप में प्रवासी श्रमिक, दलित, आदिवासी मुस्लीम और अन्य अल्पसंख्यक समुह भी इस देश का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।  हालाँकि भारत की आर्थिक वृदि की वास्तविक कहानी के विपरीत इनका निरंतर हाशियाकरण देखने को मिलता है।

लॉकडाउन  के दौरान राहत कार्य और ग़रीब, मजदुर, वंचित समुदाय की जमीनी हक़ीक़त के समा का कार्यकर्ताओं द्वारा उत्तर प्रदेश के वाराणसी, जौनपुर, और प्रतापगढ़ जिले में कुछ संस्थाएं ग्रामीण महिलाएं और किशोरियों से जानकारी ली गई।  

राष्ट्रिय लॉकडाउन  के बाद  26 मार्च को केंद्रीय वित्त मंत्री ने गरीब व अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों को  कोविड के कारण हो रही आर्थिक नुकसान और भुखमरी में राहत पहुँचाने के लिए कुछ सामाजिक सुरक्षा पहलों की घोषणा की थी।  उत्तर प्रदेश सरकार ने भी घोषणा किया था कि लॉक डाउन के दौरान हर जरूरतमंद को बिना भेदभाव  के समय से भोजन मिलना चाहिए, यह जिला अधिकारी की जिम्मेदारी है।  राहत वितरण के कार्य में प्रधानों के आलावा नगर निकायों में पार्षदों और अन्य कर्मचारियों की मदद बात कही गयी।  उन्होंने अपने आवास पर अधिकारीयों की बैठक के दौरान कहा की नियंत्रण कक्ष में अगर कोई फोन  उठा रहा है तो उसके खिलाफ प्राथमिकी  दर्ज करने की कार्यवाही की जाये। और  जिला आपूर्ति अधिकारी को निर्देश दें कि अगर कोई राशन नहीं मिलने की शिकायत करता है तो तुरंत उसका राशन कार्ड बनाने के साथ राशन और 1000 रुपये की मदद उस तक पहुँचाने का आदेश दिया था।  

ज़मीनी स्तर पे कार्ड के सन्दर्भ में जो अव्यवस्थाएं हैं वह इस क्षेत्र में भी देखने को मिलती  है। लोगो में जानकारी की कमी कहे या प्रचलित असंवेदनशीलता, प्रशासनिक पहुंच नहीं होने  के कारण बहुत ग़रीब परिवार सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत कई सेवाएं प्राप्त नहीं कर पाते है। इस लॉकडाउन के दौरान यह बहुत ज्यादा दिख रहा है कि इस समय जिन ग़रीब दिहाड़ी मजदूरों को मदद की आवश्यकता है उन तक यह सामाजिक सुरक्षा योजनाएं बहुत सिमित पहुँच रहे है । 

जौनपुर उत्तर प्रदेश में मुसहर और नुनिया समुदाय के साथ काम करने वाले एक संस्था द्वारा जानकारी मिली कि लॉकडाउन के दौरान  इस मुसहर, नुनिया समुदाय में भोजन और रोज़गार की बहुत बड़ी संकट पैदा हो गया है।  इस मुसहर, नुनिया परिवारों के पास एपीएल कार्ड है।  इस समय सरकार द्वारा राहत  कार्य के तहत राशन सिर्फ अन्तयोदया कार्ड धारकों  को ही मुफ्त राशन मिल रहा  है। इस में भी कोटेदार  वजन में 2&3 किलोग्राम कम दिया जा रहा है। जो (पात्र गृहस्थी  के तहत) पीला कार्ड धारकों को चावल 3 रूपये प्रति किलो और गेहू 2 रूपये प्रति किलो के दर से लोग राशन खरीद रहे है।  चूँकि सरकार ने वादा किया था की सभी जरुरत मंद लोगो  को मुफ्त राशन दिया जायेगा।  

मुसहर समुदाय को राशन नहीं मिलने की स्थिति में एक संस्था द्वारा एसडीएम करके शिकायत किया था और एसडीएम ने परिवारों को पहुँचाने का वादा किया था पर हम से बात करने तक इस पर कोई कार्यवाही नहीं किया गया।यही हॉल आराजीलाइन ब्लॉक की मेहंदीगंज, जयापुर और देऊरा गांव की भी है महिलाओं और किशोरियों ने बताया था कि अंत्योदया  कार्ड, बीपीएल कार्ड और जॉब कार्ड होने के बाबजूद राज्य सर्कार द्वारा वादा किये गए राशन प्राप्त करने में मुश्किल हो रही है। राज्य सरकार ने प्रति परिवार को 35 किलो अनाज और मनरेगा के अंतर्गत 1000 रूपये देने का वादा किया था, लेकिन  कुछ लोगो को राशन नहीं मिल रहा है 35 किलो के बदले 20 -25 किलो अनाज मिला और कुछ लोगों को परिवार के सदस्यों के हिसाव से  राशन दिया जा रहा है, कोई तय मानक का पालन नहीं हो रहा है। राशन के नाम पर केवल चावल और गेहूँ मिल रह है, अन्य ज़रुरी सामानों के लिए बहुत परेशानी हो रही है। 

लॉकडाउन से ग़रीब परिवार का आजीविका पर संकट

इस मुसहर बस्ती में कई परिवार से पुरुष मज़दूरी की तलाश  में पलायन किये गए। मज़दुर लॉकडाउन के बाद दूसरे शहरों से वापस गांव पहुंचे हुए है।  यहाँ पर  परिवार के पास पहले से कोई स्थाई घर नहीं रहा है।  अब लॉकडाउन में इनके लिए रहने लायक घर भी नहीं है तो कुछ लोग अपने रिश्तेदारों के घर रह रहे है बाकि गांव में खुली जगह  पर ही रह रहे है। लॉक डाउन के बाद  उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा किया था कि मनरेगा मजदूरों के बैंक खाते में 1000 रूपये तुरंत भेज दिया जायेगा।  यह पैसा उन्ही लोगो को मिलेगा जिनके जॉब कार्ड बना है।  दुर्भाग्यवश  मुसहर परिवारों में बहुत लोगों का जॉब कार्ड नहीं बना है ऐसे में यह परिवारों को मनरेगा के तहत  सहायता पाने में योग्य नहीं माना जा रहा है। ज़्यादातर गरीब मज़दूरों को अभी तक कोई आर्थिक सहायता नहीं मिला है। 

लॉक डाउन से स्वास्थ्य सेवाओं पर असर 

लॉकडाउन के दौरान राज्य स्तर पर स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से कोरोना वायरस का बचाव कार्य में जुटे हुए है। समुदाय स्तर पर जरुरी  स्वस्थ्य  सेवाएं जैसे गर्भावस्था और प्रसव सम्बंधित देखभाल व सेवाएं प्रजनन स्वस्थ्य सम्बंधित जरूरते गर्भ निरोध साधनों गर्भ समापन सुविधाएं बच्चो के टीकाकरण आदि महत्वपूर्ण कार्यक्रम सेवाएं पूरी तरह से दरकिनार किया गया। आपातकालीन एमर्जेन्सी  सेवाएं सिर्फ जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में उपलब्ध है।मातृत्व स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता नहीं होने से स्वास्थ्य जटिलताओं और परिणामस्वरूप मातृ मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी संभावित है। लॉकडाउन के दौरान  समय पर उचित स्वस्थ्य सेवाएं और एम्बुलेंस और यातायात साधन नहीं मिलने से जौनपुर के एक मुसहर समुदाय में दो परिवार में दो गर्भवती महिलाओं ने घर में बच्चे को जन्म दिया अभी तक जच्चा बच्चा ठीक है। इस तरह की घटनाये दिन प्रतिदिन बाद रही है।  लॉक डाउन से पहले सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट की तैयारी में महिलाओं के बारे में एक बार भी नहीं सोचा गया और  लॉकडाउन के बाद भी गर्भावस्था में देखभाल और प्रसव को प्राथमिकता देना जरुरी है।  इस तरह की आपात स्थितियों में महिलाओं और लड़कियों की स्थिति हमेशा पुरुषों से अलग होंगी, चाहे पोषण के मामले हो, स्वस्थ्य के मामले हो या हिंसा का मामला हो हर परिस्थिति में सबसे ज़्यादा प्रभाव महिलाओ पर पड़ती  है। यह बहुत ही चिंताजनक बात है कि कोरोना  महामारी के सन्दर्भ में महिलाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य पर लम्बे समय तक बहुत बुरा असर पड़ने का संभावना  है। मातृत्व स्वास्थ्य, प्रजनन और यौन स्वास्थ्य के  साथ-साथ अन्य जरुरी स्वस्थ्य सेवाएं नहीं मिलने से बहुत लोगो को जान गवाना पड़ रहा है। 

लॉक डाउन के दौरान आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलने दे कारण बसूलपुर मासिदा जौनपुर  में एक दलित महिला विमला देवी 40 वर्ष की  २९ मार्च को  मृत्यु हुई।  जब महिला को पेट में बहुत तेज दर्द हुआ तो एम्बुलेंस के लिए फोए किया था, बहुत देर तक जब एम्बुलेंस नहीं पहुंची तो निजी वहां की व्यवस्था करके पास में सरकारी अस्पताल गए।  वहां से बिना  उपचार के उसे बीएचयू  रेफेर कर दिया और बीएचयू पहुँचने से पहले रस्ते में महिला की मृत्यु हो गई। 

आशा कार्यकर्ताओं का बढ़ता कार्य बोझ और कोरोना के ख़तरे 

लॉकडाउन के दौरान जो मजदुर अन्य शहरों से घर / गांव पहुंचे है इन में से बहुत लोगो के कोरोना टेस्ट / जाँच नहीं हुई है, ये लोग अपने परिवार के साथ रह रहे है। जब कोरोना के मरीज के संख्या बढ़ने लगे तो  समुदाय में आशा कार्यकर्ताओं  को यह जिम्मेदारी दिया कि वह अपने गांव में  घर-घर सर्वे करके ऐसे लोगों की लिस्ट बनाएगी जो लॉक डाउन के बाद दूसरे शहरों से आये है। साथ ही यह पहचान करेगी जो लोग कोरोना संक्रमित व्यक्ति के संपर्क आए हो, इसके आलावा आशा कोरोना संदिग्ध केस की पहचान करने के लिए उनके तापमान नापना, उनको रेफेर करना घर में बंद रखे गए / होम क्वारंटाइन किये लोगों का फॉलो-अप भी करना है।   प्रशासन ने आशा कार्यकर्ताओं को अपनी सुरक्षा के लिए मास्क, दस्ताने आदि सुक्षा उपकरण मुहैया नहीं कराया गया।  इस काम के लिए आशा कार्यकर्ताओं को दो महीने अप्रैल, मई में मात्र 1000 रुपये अतिरिक्त दिया जायेगा।  यहाँ पर भी एक महिला को सुरक्षा और स्वास्थ्य को ध्यान में नहीं रखा गया। समान अधिकार वाले नागरिकों के रूप में आशा, एएनएम, आँगनवाड़ी कार्यकर्ता स्वस्थ्य व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।  हालाँकि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था महिलाओं के प्रति कितने संवेदनशील है, हम सभी जानते है यहाँ पर भी एक महिला की हाशियेकरण और बहिष्कार को प्रदर्शित किया है।

लॉकडाउन में मातृत्व स्वास्थ्य के उभरते जोखिम – वंचित समुदाय के महिलाओं पर बढ़ता ख़ास बोझ

गर्भावस्था सेवा एक आवश्यक स्वास्थ्य सेवा है क्यूंकि इसका सम्बन्ध महिलाओं के प्रजनन शरीर, जीवन और उनके अधिकारों से है। यह सेवा सुनिश्चित करना इसलिए काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों से मातृत्व स्वास्थ्य सेवा पुष्टि में अवरोध की कुछ घटनाओं के बारे में समाचार पत्र के माद्यम से उजागर किया गया है। लेकिन ज़मीनी वास्तविकता में यह भी समझ आता है कि इस तरह के मामले में गरीब और दिहाड़ी मजदुर महिलाओं के साथ ज़्यादा संघर्षशील हो जाते है।  ऐसी ही एक जानकारी जोकि कुछ संस्थाएं / संगठनों से प्राप्त किये है वो निचे साझा है।

समय पर एम्बुलेंस नहीं मिलने के कारण एक दलित महिला की प्रसव के दौरान मृत्यु की घटना सामने आई है। जौनपुर में एक दलित गर्भवती महिला को एम्बुलेंस नहीं मिली और घर में प्रसव हो जाने के बाद अधिक खून गिरने से माँ और बच्चे की मृत्यु हो गई।

अगर समय पर एम्बुलेंस आ गई होती मेरी पत्नी और मेरी बच्ची आज ज़िंदा होती, आज मेरे ये चार बच्चे बिना माँ के नहीं होते, काश लॉकडाउन नहीं होता तो मुझे समय पर प्राइवेट गाड़ी मिल गए होते और में इन बच्चो के माँ को  बचा पाते और मेरे बच्चे अनाथ नहीं होते ” – उसके पति ने रोते हुए बोला।

पूर्वा (बदला हुआ नाम है) एक दलित  महिला जिनकी उम्र 30 वर्ष थी, वह ग्राम दुगौली पोस्ट तियरा रहसील बदलापुर, जौनपुर उत्तर प्रदेश में  पति  संतोष  कुमार (बदला हुआ नाम है ) और अपने चार बच्चे (तीन बेटियां एक बेटे)  के साथ रहती थी।  पूर्वा का यह पांचवा गर्भावस्था थी।  पूर्वा की गर्भावस्था में कम जाँच हुई थी, आंगनवाड़ी में ए.एन.एम द्वारा टीका लगा था। 16 अप्रैल को पूर्वा को प्रसव पीड़ा शुरू हुई।  परिवार वाले 108  और 102  में कई बार फ़ोन करते रहे  लेकिन कोई एम्बुलेंस नहीं  पहुंची।  महिला को दर्द बहुत ज्यादा बढ़ने लेगा, इसके बाद तियरा बाज़ार में एक छोटा प्राइवेट क्लिनिक में एक लोकल डाक्टर (अप्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी) को दिखाया  गया, वहां पर नर्स ने बोला कि इसको बच्चा होने ही वाला है और आप जल्दी कोई और अस्पताल ले जाये। इसके बाद परिवार वाले आस पास में जितने प्राइवेट गाड़ी वाले के पास गए बिनती किया पर लॉकडाउन के कारण, और पुलिस द्वारा गाड़ी के चालान काटने के डर  से कोई भी गाड़ी से ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।  तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

इसके बाद मजबूरी में वापिस उस प्राइवेट छोटे क्लिनिक में गए, वहाँ के एक नर्स द्वारा प्रसव कराया गया।रात में 8  बजे पूर्वा को एक बेटी हुई। प्रसब तो हो गया लेकिन पूर्वा को बहुत ज्यादा ख़ून गिरने लगा तो नर्स ने अस्पताल ले जाने की सलाह दिया। परिवार वाले फिर से गाड़ी वालों से बिनती  किया आखिर एक गाड़ी वाला 5000  रूपये में जाने के लिए तैयार हुए। महिला को  पहले समुदायक स्वास्थ्य केंद्र बदलापुर ले गई।  वहां  डाक्टर ने जिला अस्पताल के लिए रेफर  किया, महिला की स्थिति बहुत  ख़राब होने लगी, रास्ते में ही बच्चे का मृत्यु हुआ इसके बाद ज़िला अस्पताल पहुँचने से पहले महिला की भी मृत्यु  हुई।

यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हमें महिलाओं के स्वास्थ्य पर विषम परिस्थिति के आक्रामक परिणामों के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है, और साथ ही  साथ संसाधनों तक पहुंच के संदर्भ में हमें प्रणालीगत असमानताओं की याद दिलाती है।

हम समझते है इस मुश्किल समय में स्वास्थ्य व्यवस्था, स्वास्थ्य  अधिकारीयों और कार्यकर्ताओं  को सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़  रहा है।  लेकिन  हम यह भूल नहीं सकते है कि भारत में  जहाँ महिलाएं और किशोरी लड़कियों में  अत्याधिक खून की कमी है यह मातृ मृत्यु  दर में कमी  लाने में मुश्किल होता है।  इस समय  मातृत्व स्वास्थ्य और प्रजनन स्वास्थ्य  सेवाओं पर छोटा सी भी लापरवाही हमें फिर  मातृ मृत्यु  दर  को पीछे  ले जायेगा । और दोबारा  मातृ मृत्यु  दर को काम करने में  बहुत मुश्किल होगी। इसलिए इस समय कोरोना के रोकथाम के साथ-साथ मातृत्व स्वास्थ्य और प्रजनन स्वास्थ्य  सेवाओं  पर भी  अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।  

आज के जटिल परिदृश्य में ज़मीनी स्तर पर प्रतिकूल वास्तविकताओं को व्यापक रूप से समझना बेहद चुनौतीपूर्ण है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि फिर अधिकार आधारित दृष्टिकोण से इस पर विचार करें। 

– सुशीला, समा रिसोर्स ग्रुप फ़ॉर वीमेन एंड हेल्थ 

लॉकडाउन  के दौरान राहत कार्य और ग़रीब, मजदुर, वंचित  समुदाय की जमीनी हक़ीक़त के सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के वाराणसी, जौनपुर, और प्रतापगढ़ क्षेत्र में कुछ संस्थाएं व ग्रामीण महिलाएं और किशोरियों से बातचीत के आधार पे यह ब्लॉग संकलित किया है।

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